दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है,
हम भी पागल हो जायेगा ऐसा लगता है.
दुनियाभर कि यादें हमसे मिलने आती है,
शाम ढले इस सूने घर मी मेला लगता है.
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो,
शबनम का कतरा भी जिनको दरिया लगता है.
किसको “कैझर” पथ्थर मारूँ कौन पराया है,
शीश महल मी एक एक चेहरा अपना लगता है.
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